नग़्मे गाता गया फिर हवा बन गया
रविराज प्रणामी
अलसाया आलम! उनींदा सा। बिस्तर से बाहर निकलने की अनिच्छा!! अपनी ही सुहाती सी नशीली आवाज़!!! भूपेंद्र, भूपीदा यहीं तो आ जुड़ते हैं आपसे, समा जाते हैं आपमें और फिर दिल ढूंढने लगता है फिर वही फुरसत! कि रात दिन बैठे रहें यों हीं। उम्र गुज़र जाये यों हीं। जाड़ों की नर्म धूप चढ़ती चली जाये यों हीं। ज़िन्दगी एक रैना सी हो जाये, बीते ना बिताये। ज़िन्दगी में तुम्हारे तो क्या, कोई ग़म ही ना हों।
ऐ ऐसी ज़िन्दगी! आबोदाना ढूंढेंगे आशियाना ढूंढेंगे, तुम बस मेरे घर आना.
ज़िन्दगी आई बरसों बनी रही उनके घर, उनके गले में उनके हाथों में, ये ऐलान करते हुए कि मेरे घर का इतना सा पता है कि मेरे घर के आगे मुहब्बत लिखा है और फिर.. आई थी तो जाना भी था। चली गई। भूपिंदर सिंह सोनी ज़िन्दगी को ख्वाब सी बना, ख्वाहिश सी बना चुपचाप चले गए!
दर्द इतना मिला कि दवा बन गया
नग़्मे गाता गया फिर हवा बन गया
पंच तत्वों में समाने से पहले के दस बरस भूपीदा ने अपने भीतर ही समेट लिये। ख़ुद को ज़ाहिर न होने दिया। जीवन का उत्तरार्द्ध! उफ!! करोगे याद तो हर बात याद आएगी।
भूपीदा कभी किसी को मुकम्मल जहां ना मिलने वाली शहदिया मिठास भरी, कहीं दूर दर्द के अहसासों में से बर्फीली छुअन दे जाती सी आवाज़ भर नहीं थे। वे शायरी के अल्फाज़ थे। जब वे गाते थे तो उधर क्षितिज में लिख जाता था कि शायरी खुद मुखातिब है, कह रही है
'शौक से आएं ग़म ज़माने के दर खुले हैं गरीबखाने के'
'किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है'
'इश्क खुदा का नूर है ऐसा कि दिल रोशन हो जाये'
'वो जो शायर था चुप सा रहता था'
'आज बिछड़े हैं कल का डर भी नहीं'
भूपीदा मानो कह रहे हों
चलती राहों में यूं हीं आंख लगी है अभी
भीड़ लोगों की हटा दो कि ज़िंदा हूं अभी
आप ज़िंदा ही तो हैं भूपीदा! आप जैसे फनकार फना होते हैं भला!! आप फाकिर, फाज़ली, नक्श, गुलजार और इनसे निकलते आला शायरों का फख्र हैं उनकी कलमों का नाज़ हैं। गुलज़ार! जैसे कोई शायर अपनी आवाज के पास बैठ गया हो।
मदनमोहन, जयदेव, पंचम, खैयाम का अभिमान हैं। बर्मन दा जब 'होंठों में ऐसी बात...' का हंगामी तानाबाना बुनते हैं तो आपका सिर्फ 'ओ शालू..' भरा उद्घोष समूचे उत्तर पूर्वी भारत का जयघोष बन जाता है।
आप ज़िंदा ही तो हैं भूपीदा! जो कतरा कतरा संगीत में रचा बसा हो वो कहाँ संगीत रसिकों से दूर हो पाता है?
जिन शिल्पकारों ने भारतीय फिल्म संगीत के सुनहरे युग का निर्माण किया उनमें से अंतिम बचे स्वर्ण स्वरों में से एक आप भी हैं, आप संगीतात्मीयों में उस मकाम पर हैं कि वे आपको झिड़की दे कह उठते हैं 'हुजूर इस कदर भी ना इतरा के चलिए'
आप ज़िंदा ही तो हैं भूपीदा! आपका कंठ सुरीला, आप के हाथ भी। 'दम मारो दम', 'जिस दिन से मैंने तुमको देखा है ', 'चुरा लिया है तुमने', 'यादों की बारात निकली', 'चिंगारी कोई भडके', 'चलते चलते मेरे ये गीत', 'मेहबूबा मेहबूबा' 'आने वाला पल'और ऐसे कई गीतों में आपके हवाइन गिटार का नशा कभी उतर ही नहीं सकता। आपकी उंगलियां थोड़े ही गिटार बजाती थीं वो तो आपकी आत्मा थी जो उंगलियों में आ बैठती थी। और गिटार ही क्या? क्या रबाब, क्या वायलिन क्या नही बजा पाते थे आप? ऊद तो लाये भी आप ही हैं फिल्म संगीत में और हां 12 स्ट्रिंग गिटार से भी फिल्मी गीतों को आपने ही परिचित करवाया है।
आप ज़िंदा ही तो हैं भूपीदा! कह जो गये हैं नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जायेगा मेरी आवाज़ ही पहचान है।
भूपीदा आप वहाँ फिल्म आखिरी ख़त के उस गीत में अपने संपूर्ण रूप में हैं और रहेंगे, वहां आपकी दिलकश खरजदार आवाज भी है, आपका बोलता गिटार भी है और आप खुद भी हैं रुत जवां है रात मेहरबां है और आपने कोई दास्तां भी छेड़ रखी है। काश ये दास्तां कभी खत्म न होती!!
भूपेंद्र, भूपिंदर सिंह, भूपीदा अस्पताल में कई तकलीफों के साथ कोरोनाग्रस्त हो जाने के बाद महाप्रयाण की तैयारी कर चुके थे। छोटे भाई की तरह रहे दिग्गज संगीतज्ञ उत्तम सिंह को उन्होंने कहा कि बस कुछ दिन और!
अमृतसर, पिता नत्था सिंह के संगीत ज्ञान के सामने डर जाने वाला भूपी, गिटार हाथ लगते ही संगीत का हो जाना उसका, दिल्ली आकाशवाणी में सतीश भाटिया जी का साथ, दिल्ली में ही संगीत सर्जक मदन मोहन की पारखी नजरों में उसका चढना, वो बंबई बुलावा फिर रफी साहब के सामने ना गा पाना, पंचमदा से जिगरी दोस्ती, बांग्लादेश से मिताली मुखर्जी के रूप में जीवन संगिनी का आ मिलना, सार्थक संगीत में शिखर छूना और फिर अचानक तय कर कह उठना 'अब कफन ओढ़ लिया है कोई अफसोस नहीं!'
'सैंया बिना घर सूना' अब!!