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भुला दिए गए संस्‍कार गीतों के सहारे परंपरा को पुकारती आवाजें

MCAI - 27 Dec 2022

“साहिल के तमाशाई, हर डूबने वाले पर अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं करते.”

 

दम तोड़ती परंपराओं के संदर्भ में जब यह बात जे़हन में कौंधती है तो मिट्टी की सौंधी गंध में भीगे ऐसे बेशुमार गीतों की खनक याद की दहलीज पर दस्तक देती है जिन्हें हम नए फैशन-परस्त जमाने के हो-हल्ले में भूलते जा रहे हैं. कमोबेश हर बिरादरी धीरे-धीरे जमीनी खुशबुओं से तारी संस्कार गीतों से वंचित होती जा रही है. इस लोकरंगी धरोहर के डूबते जहाज को बचा लेने की फिक्र के साथ इधर जो कोशिशें सामने आती रही हैं उन्हें मानपूर्वक रेखांकित किया जाना चाहिए.

 

पिछले दिनों जब सामाजिक उद्यमिता के अग्रणी संस्थान आईसेक्ट ने अपने सहयोगी संस्थानों के साथ मिलकर चार राज्यों में पुस्तक यात्राएं निकालीं तो उनका समाहार भोपाल में ‘लोकराग’ से हुआ. लोक कंठ की धनी गायिका मालिनी अवस्थी ने अवध के संस्कार गीतों की सभा सजाई. उल्लेखनीय यह कि इस सभा के पहले एक महत्वपूर्ण दस्तावेजी ग्रंथ का लोकार्पण उन्होंने किया. यह संकलन माथुर चतुर्वेदी की समृद्ध परंपरा से जुड़े संस्कार गीतों का था. चतुर्वेदी समाज की ही विनीता चतुर्वेदी ने अपने बरसों के शोध-अध्ययन के बाद एक हज़ार के करीब संस्कार गीतों को संकलित किया. सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों को चिह्नित करते हुए उन्हें पुस्तक की शक्ल दी. इस बहुमूल्य किताब को प्रकाशित किया आईसेक्ट प्रकाशन भोपाल ने. तीन सौ से भी अधिक पृष्ठों में फैला लोक का आलोक हमें उन कोनों में झांकने के लिए विवश करता है जहां कभी हमारे जीवन को विश्राम देता देशज धुनों में पगा गीतों का सैलाब बहा करता था.

 

बहरहाल, इन दिनों जब शादियों का मौसम शबाब पर है, रौशनी की चकाचौंध, डीजे का शोर और संगीत संध्या के नाम पर फूहड़ नाच-गाने की होड़ मची है तब ढोलक की उठती थापों के साथ बोलियों में रचे गीतों को गाती घर-परिवार की टोलियों के दृश्य ओझल हो गए हैं. विनीता चतुर्वेदी ने उन्हीं धुंधलाती छवियों को लौटा लाने की कामना से यह किताब तैयार की है. माथुर चतुर्वेदी जाति का अस्तित्व वैदिक काल से है. अन्य ब्राह्मणों से अलग माथुर चतुर्वेदियों के जातिगत संस्कार और परंपराएं भी कुछ विशिष्ट रहीं. मूल निवास स्थान मथुरा और भाषा ब्रज होने से माथुर चतुर्वेदियों को गीत-संगीत विरासत में ही मिला. इस विरासत को सहेजते हुए माथुर चतुर्वेदियों ने जीवन के विविध संस्कारों के लिए विविध गीत भी रचे. हर अवसर पर गाए जाने वाले पारंपरिक गीतों की आज इतनी संख्या हो गई है कि उन्हें याद रख पाना भी मुश्किल हो गया है.

 

इधर समय का पहिया जिस तेज़ गति से घूमा है उसने हमारे आसपास के जीवन को भी इतनी रफ्तार दी है कि हमें अपनी परंपराओं/संस्कारों को याद रखने की सुध ही नहीं रह पाई. हमारे समृद्ध अतीत की उपेक्षा हो रही है. यह हमारी विफलता है जो हम हमारे गौरवशाली अतीत से वर्तमान पीढ़ी को परिचित नहीं करा पा रहे है. उनमें हमारी जातिगत विरासत के प्रति आकर्षण नहीं जगा पा रहे हैं. विनीताजी अपने अनुभव साझा करती हुई बताती हैं कि आज जब मेरी अम्मा (सासू मां) और मां हमारे परिवार के बीच नहीं है तब हर ब्याह, शादी के कार्यक्रम के नाच-गाने में मेरे अंतःकरण में उनके द्वारा गाए गए गीतों की अनुगूंज साथ-साथ चलती रहती है. वैसे तो आज ब्याह-शादी बड़ी धूमधाम और साज-सज्जा के साथ होने लगे है. परंतु उनमें हमारे लोकसंगीत का ये कोना दिन-प्रतिदिन सिमटता ही जा रहा है और इस सिमटाव के कारण इन गानों को धीरे-धीरे लोग भूलने भी लगे हैं. मुझे ही नहीं शादी-विवाह में उपस्थित हर सदस्य को जिन्होंने पिछले वर्षों के शादी-विवाह देखे हैं, ये कमी मन में खटकती है. ढोलक की थाप के बिना वो कोना सूना ही रह जाता है.

 

अपने बच्चों के विवाह के समय उन गीतों की हमेशा याद आती है कि अमुक माँ, चाची, मौसी, बुआ होतीं तो गीतों की झड़ी लगा देती. शादी की रौनक कुछ और ही होती. हमारे घरों में पिछली पीढि़यों के बात कहने के अंदाज को हम याद करें. एक कहावत, मुहावरे, या गीत की एक लाइन से पूरी की पूरी बात कह दी जाती थी और पूरा वातावरण खिलखिला उठता था. हर रिश्ते के लिए हमारे घर की बड़ी महिलाओं के पास हर लाइन मौजूद होती थी और समय पर उन्हें वो याद भी आ जाती थी. विनीताजी भावुक होकर जोड़ती हैं, आज अम्मा और मां मेरे साथ नहीं है परंतु माता-पिता अंतर्मन में कहीं गहरे समाए होते हैं. आसपास उनका एहसास हमेशा बना ही रहता है.

 

इस काम को करते हुए विनीताजी को दुगुना समय लगा क्योंकि इतने गीतों को निश्चित समय सीमा में एकत्र करना, फिर उनकी फीडिंग और सबसे दुरूह कार्य इन गीतों की प्रूफरीडिंग करना. परंतु उन्हें आसपास की महिला साथियों ने भरपूर साथ दिया. जब कार्य प्रारंभ किया तो लगता था 300 गीतों के आसपास यह संग्रह पूरा हो जाएगा, परंतु वो संख्या 1000 के आसपास पहुंच गई. हमारी लोक परंपरा इन गीतों में विद्यमान हैं. हमारे जीवन के गहरे रिश्ते हैं, चुहलबाजियां हैं. ईश्वर के आव्हान से लेकर, विभिन्न शुभ कार्यों पर गाए जाने वाले गीतों का यह अद्भुत संकलन बन पड़ा है. इसमें गणेश जी एवं देवी जी के भजन तो हैं ही, साथ में लांगुरिया, बन्नी, बन्ना, भात, घोड़ी, बधाए, जच्चा-सोहर, पालना जैसे शुभ अवसरों के गीत भी हैं. महिला संगीत में गाए जा सकने वाले पारंपरिक नृत्य गीत तथा इसी अवसर के लिए लोकप्रिय फि़ल्मी गीतों को भी इस संग्रह में शामिल किया गया है.

 

इन संस्कार गीतों में यह जीवन रस छलक छलक पड़ता है. घर परिवार समाज में आपकी रिश्तों की गर्माहट, शिकवे-शिकायत, रूठना-मनाना, लानत-मलामत, सामूहिकता का आनंद, प्रकृति का सान्निध्य और उसकी पूजा, ईश्वर का आवाहन और सतत् उसके साथ रहने और उसके आश्रय की आकांक्षा, करुणा, हर्ष, उल्लास के भाव, शुभ की आकांक्षा और अशुभ की छाया से दूर रहने की आशा ये सब इन गीतों में है जो वास्तव में जीवन को जीवन बनाता था और जिसके न होने से हम एक खालीपन महसूस करते है.

 

विनीताजी के इस श्रमसाध्य और अनूठे प्रकल्प के प्रोत्साहक उनके साहित्यकार पति संतोष चौबे भी लोक स्मृतियों के संरक्षण के प्रति गंभीर हैं. उनका मानना है कि संस्कार गीतों में महिला स्वर पूरी ताकत के साथ ध्वनित होता है, उसे होना भी चाहिए. उनके सुख-दुख, आशा-आकांक्षा उनके सपने इन गीतों में झलकते हैं और दिलचस्प है कि इन सपनों का स्वरूप भी गीतों में समय के साथ बदलता रहता है. कहीं कही ये गीत कथा बन जाते हैं (जो लोक गीतों का मूल गुण भी है) कहीं ये संवाद में बदल जाते हैं और कहीं संदेश में शैली के रूप में इनके ये गुण, कला पारखियों के लिए दिशा-निर्देश का काम भी कर सकते हैं.

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