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तानसेन समारोह 2022: हर सुर यहां इबादत के फूल सा महकता है

MCAI - 28 Dec 2022

वक्‍त को अलविदा कहते साल 2022 का ये आखिरी महीना. सांझ का सुरीला मुहूर्त. गोधुली के मंगल में मारू विहाग के कोमल स्वर घुल गए थे और बेगम परवीन सुल्ताना के कंठ से झरता गान जैसे इबादत का पाकीज़ा अहसास बनकर श्रोताओं की रूह में उतर आया था. मोहम्मद गौस का मकबरा एक बार फिर मौसिक़ी की गमकदार तानों से गूंज रहा था. बेगम की बेमिसाल गायकी के सम्मोहन में डूबी इस महफिल पर हर कोई निहाल था और मुमकिन है कि मियां तानसेन आसमान की किसी कोर पर आसन जमाए इस नजारे पर अपना आशीष लुटा रहे होंगे. चंबल की सरहदों में बसे ग्वालियर की सरजमीं पर अब हर बरस ऐसे ही सुरीले मौसम उतरते हैं. इन आहटों को तानसेन संगीत समारोह के नाम से दुनिया पहचानने लगी है.

 

बस, दो बरस बीतेंगे और यह जलसा सौवीं पायदान तय कर लेगा. लेकिन 98 वीं बरसी का यह उत्सव अपनी तमाम रंगतों में शताब्दी के मुहाने की मुस्कुराहट लिए सुर-साज और आवाजों का दिलकश कारवां लिए पेश आया. 18 से 23 दिसंबर की दरमियानी महफि़लों में जैसे सारे जहां के सुर तानसेन की इस तपोभूमि में सिमट आए. यकीनन यह विश्व संगीत समागम था. हिंदुस्तानी संगीत की मुख्तलिफ शैलियों और परंपराओं में परवरिश पाने वाले गायन-वादन से लेकर यूएस, इजराइल और अर्जेंटीना जैसे मुल्कों में गाए-बजाने वाले संगीत की प्रस्तुतियों का मंच सजा था. तमाम फासलों और संकीर्णताओं को तौबा कर सात सुरों का परचम लिए सैकड़ों फनकार मियां तानसेन का एहतराम कर रहे थे. सच्चे सुरों की कसौटी भी यही है कि वे आत्मा के आसन पर देवता की तरह विराजें. तानसेन समारोह इस सच की गवाही देता है कि संगीत किसी भी फिरकापरस्ती नहीं जानता. वो तो बस मनुष्यता की महक बनकर हर रूह में उतर जाता है.

 

इसी शपथ के आसपास नित्यानंद हल्दीपुर और संतोष संत की मुरली का नाद गूंजा, प्रवीण शेवलीकर और कनुप्रिया देवताले की वायोलिन से रागदारी का रोमांच बिखरा, ब्रजभूषण गोस्वामी की ध्रुपद की तानों का तिलिस्म जागा, जयतीर्थ मेवुंडी की ख़्याल गायिकी में परंपरा की बंदिशों का आसमान खुला. मुंबई से लेकर धारवाड़ और दिल्ली से लेकर भोपाल तक तीन पीढि़यों के सौ भी ज़्यादा संगीतकारों ने सुरों का अभिषेक किया. मध्यप्रदेश के संस्कृति महकमे की पहल नगर निगम ग्वालियर तथा जनसंपर्क संचालनालय मध्यप्रदेश के सहयोग से यह समारोह हर वर्ष की तरह उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादेमी ने संयोजित किया. संगीत से जुड़े अनेक नए आयामों और गतिविधियों ने इस समारोह को प्रस्तुति, संवाद तथा आस्वाद और रसिकेता की दृष्टि से एक आदर्श और गरिमामय आयोजन के रूप में स्थापित किया.

 

तानसेन समारोह की पूर्व संध्या ‘गमक’ की इस सभा को आयोजित करने की परिकल्पना भी इसी नवाचार और विस्तार का प्रतीक है. मंशा यही कि तानसेन की मजार पर जब मौसिकी का जलसा शुरू हो तो ‘गमक’ की इस महफि़ल से उठी आवाज भी प्रार्थना का एक पवित्र स्वर बनकर उभरे. इस बार गायक हंसराज हंस के नाम यह हाजि‍री थी. परिकल्पना, संयोजन और विस्तार की दिशाएं कुछ इस तरह खुलती रहीं कि यहां सभा-पांडाल से अलग ‘वादी-संवादी’ की बैठक में संगीत मनीषी पंडित किरण देशपांडे और ग्वालियर घराने की मेधावी गायिका शाश्वती मंडल ने साहित्य, संगीत, रियाज और प्रदर्शन को लेकर संगीत के विद्यार्थियों से संभाषण किया. एक परकोटा ‘गीत गोविंद’ पर एकाग्र रागमाला के चित्रों से अटा था तो दूसरी ओर ललित कला प्रदर्शनी में ‘रंग संभावना’ के फलक तानसेन के संगीत समय को रच रहे थे.

 

अलाउद्दीन खां संगीत अकादेमी के निदेशक संगीत के गहरे अनुरागी जयंत भिसे इन सबके बीच सौहार्द की सुगंध बिखेरते इस सौभाग्य से भरे थे कि उन्हें एक ऐतिहासिक समारोह की खिदमत का अवसर मिल सका. अकादेमी के उपनिदेशक राहुल रस्तोगी इस समारोह की एक सदी के उत्सव की कल्पना में डूबे दिखाई दिए. हालांकि 98वीं कड़ी में गतिविधियों का फैलाव ग्वालियर और आसपास के इलाकों तक हुआ है. तानसेन की जन्मभूमि बेहट सहित शिवपुरी, दतिया और पड़ावली गांव के निकट बटेश्वर मंदिर प्रांगण में भी संगीत की सभाएं हुईं.

 

सुखद विस्मय होता है कि 1924 में सिंधियावंश के तत्कालीन महाराजा की पहल पर तानसेन की समाधि पर एक छोटे से उर्स की शक्ल में शुरू हुई गतिविधि आज दुनिया के सबसे बड़े संगीत समागम का स्वरूप ले चुकी है. इस समारोह के साथ महत्वपूर्ण पहलू जुड़ा तानसेन सम्मान का. 1980 में इस राष्ट्रीय सम्मान की स्थापना हुई. तब पांच हजार की मानद राशि तय हुई. वर्तमान में यह निधि दो लाख रूपए कर दी गई है. वर्ष 2022 का सम्मान प्रख्यात बांसुरी वादक पंडित नित्यानंद हल्दीपुर को प्रदान किया गया, जो विदुषी अन्नपूर्णा देवी के प्रिय शिष्य रहे. संगीत सेवी संस्था सामवेद सोसाईटी फॉर परफार्मिंग आर्ट मुंबई को राजा मानसिंह तोमर सम्मान दिया गया.

 

समारोह में नवाचार के नाम पर विविध गतिविधियों के जो आयाम जुड़े उसमें वादी-संवादी के साथ विवादी स्वर भी उठते रहे. कलाकारों का एक धड़ा ‘गमक’ और विदेशी संगीतकारों की प्रस्तुतियों को समारोह की शास्त्रीय शुद्धता पर ‘ग्रहण’ की तरह अनुचित मानता हैं. आयोजकों की दलील है कि समारोह को संगीत की समग्रता में रचते हुए ये प्रयोग लोक रूचि और उनके परामर्श को दृष्टिगत रखते हुए किए गए. ग्वालियर का अपना एक सुदीर्ध राजनीतिक-सामाजिक इतिहास रहा है. लेकिन अतीत के पन्नों पर संस्कृति की सुनहरी इबारत पढ़ते हुए किंवदंती पुरुष संगीत सम्राट तानसेन की याद सहसा हमारे जेहन में कौंधती है.

 

कुशल गायक, संगीतकार, कला-मर्मज्ञ और कवि के रूप में तो उनकी ख्याति थी ही लेकिन संगीत के प्रति अगाध प्रेम ने उनके व्यक्तित्व को कुछ ऐसा गढ़ा कि ग्वालियर की सरजमीं को उन्होंने संगीत का तीर्थ बना दिया. दुनिया उन्हें अकबर के नौ रत्नों में शुमार गायक के तौर पर भी पहचानती है. उन्हीं के काल में ध्रुपद और ख्याल गायन का चरम विकास हुआ. ग्वालियर को उन्होंने संगीत ने एक ऐसे गढ़ के रूप में लोकप्रियता प्रदान की कि अनेक गुणी गायक-वादकों ने ग्वालियर को अपनी साधना-भूमि बना लिया. मान मंदिर, गूजरी महल और सहस्रबाहु मंदिर का खुला परिसर जानें कितनी सभाओं का साक्षी रहा है.

 

राजा मानसिंह तोमर ने अपने समय में भारत के अनेक संगीतकारों को आमंत्रित कर एक संगीत परिषद आयोजित की थी. उस दौरान हुए विचार-विमर्श को बाद में ‘मान कुतूहल’ ग्रंथ में संग्रहित किया गया था. जन्म से हिंदू रीति-रिवाजों में पले-बढ़े तानसेन अपनी उम्र के छठे दशक तक पन्ना के राजा रामचंद्र के दरबारी गायक रहे. संगीत में उनकी सिद्धहस्तता के कारण जब शहंशाह अकबर ने उन्हें आगरा बुलाकर अपने नवरत्नों में शामिल किया तो उन्होंने अपने आप को सूफी संप्रदाय के अधिक नजदीक पाया. तानसेन अकबर के पीर सूफी संत शेख सलीमचिश्ती के प्रभाव में भी रहे और कालांतर में अकबरी दरबार से जुड़े सूफी संत हजरत मोहम्मद गौस के सानिध्य में आकर उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरू भी बनाया.

 

1589 ईस्वी में तानसेन के महाप्रयाण के बाद उनकी मजार इसीलिए हजरत मोहम्मद गौस के विशालकाय मकबरे के करीब बनाई गई. नौ दशक से भी ज्‍यादा बीत गए. इस बीच देश-दुनिया में बहुत कुछ बदला लेकिन ग्वालियर के हजीरा इलाके स्थित तानसेन की समाधि पर सुरों की इबादत का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. कुछ ऐसा रूहानी असर कि मौसिकी से ताल्लुक रखने वाले दुनिया के तमाम फनकार इस देहरी पर आकर अपने महान पुरखे की याद में सिर झुकाना चाहते हैं. सुरों का चराग जलाकर दुनिया के लिए अमन-चैन की दुआ मांगते हैं. सुर की उस करिश्माई ताकत और असर को हासिल करना चाहते हैं जिसे तानसेन ने अपनी साधना के बल पर अर्जित किया था.

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